वांछित मन्त्र चुनें

ए॒तानि॑ वामश्विना वी॒र्या॑णि॒ प्र पू॒र्व्याण्या॒यवो॑ऽवोचन्। ब्रह्म॑ कृ॒ण्वन्तो॑ वृषणा यु॒वभ्यां॑ सु॒वीरा॑सो वि॒दथ॒मा व॑देम ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

etāni vām aśvinā vīryāṇi pra pūrvyāṇy āyavo vocan | brahma kṛṇvanto vṛṣaṇā yuvabhyāṁ suvīrāso vidatham ā vadema ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒तानि॑। वा॒म्। अ॒श्वि॒ना॒। वी॒र्या॑णि। प्र। पू॒र्व्याणि॑। आ॒यवः॑। अ॒वो॒च॒न्। ब्रह्म॑। कृ॒ण्वन्तः॑। वृ॒ष॒णा॒। यु॒वऽभ्या॑म्। सु॒ऽवीरा॑सः। वि॒दथ॑म्। आ। व॒दे॒म॒ ॥ १.११७.२५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:117» मन्त्र:25 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:17» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:25


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर स्त्री-पुरुष कब विवाह करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृषणा) विद्या के वर्षाने और (अश्विनौ) प्रशंसित कर्मों में व्याप्त स्त्रीपुरुषो ! (वाम्) तुम दोनों के जो (एतानि) ये प्रशंसित (पूर्व्याणि) अगले विद्वानों ने नियत किये हुए (वीर्याणि) पराक्रमयुक्त काम हैं उनको (आयवः) मनुष्य (प्रावोचन्) भली-भाँति कहें, (युवभ्याम्) तरुण अवस्थावाले तुम दोनों के लिये (ब्रह्म) अन्न और धन को (कृण्वन्तः) सिद्ध करते हुए (सुवीरासः) जिनके अच्छी सिखावट और उत्तम विद्यायुक्त वीर पुत्र, पौत्र और सेवक हैं, वे हम लोग (विदथम्) विज्ञान करानेवाले पढ़ने-पढ़ाने रूप यज्ञ का (आ, वदेम) उपदेश करें ॥ २५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य जिन विद्वानों ने लोक के उपकारक विद्या और धर्मोपदेश से प्रचार करनेवाले काम किये वा जिनसे किये जाते हैं, उनकी प्रशंसा और अन्न वा धन आदि से सेवा करें क्योंकि कोई विद्वानों के सङ्ग के विना विद्या आदि उत्तम-उत्तम रत्नों को नहीं पा सकते। न कोई कपट आदि दोषों से रहित शास्त्र जाननेवाले विद्वानों के सङ्ग और उनसे विद्या पढ़ने के विना अच्छी शीलता और विद्या की वृद्धि करने को समर्थ होते हैं ॥ २५ ॥इस सूक्त में राजा, प्रजा और पढ़ने-पढ़ाने आदि कामों के वर्णन से पूर्व सूक्तार्थ के साथ इस सूक्त के अर्थ की सङ्गति है, यह समझना चाहिये ॥यह १ अष्टक के ८ वे अध्याय में सत्रहवाँ वर्ग और एक सौ सत्रहवाँ सूक्त पूरा हुआ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स्त्रीपुरुषौ कदा विवाहं कुर्यातामित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे वृषणाऽश्विना वां यान्येतानि पूर्व्याणि वीर्याणि कर्माणि तान्यायवः प्रवोचन् युवभ्यां ब्रह्म कृण्वन्तो सुवीरासो वयं विदथमावदेम ॥ २५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एतानि) प्रशंसितानि (वाम्) युवयोः (अश्विना) प्रशंसितकर्मव्यापिनौ स्त्रीपुरुषौ (वीर्याणि) पराक्रमयुक्तानि कर्माणि (प्र) (पूर्व्याणि) पूर्वैर्विद्वद्भिः कृतानि (आयवः) मनुष्याः। आयव इति मनुष्यना०। निघं० २। ३। (अवोचन्) वदन्तु (ब्रह्म) अन्नं धनं वा। ब्रह्मेत्यन्नना०। निघं० २। ७। तथा ब्रह्मेति धनना०। निघं० २। १०। (कृण्वन्तः) निष्पादयन्तः (वृषणा) विद्यावर्षकौ (युवाभ्याम्) प्राप्तयुवावस्थाभ्यां युवाभ्याम् (सुवीरासः) सुशिक्षाविद्यायुक्ता वीराः पुत्राः पौत्रा भृत्याश्च येषां ते (विदथम्) विज्ञानकारकमध्ययनाध्यापनं यज्ञम् (आ) (वदेम) उपदिशेम ॥ २५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्या यैर्विद्वद्भिर्लोकोपकारकाणि विद्याधर्मोपदेशप्रचाराणि कर्माणि कृतानि क्रियन्ते वा तेषां प्रशंसामन्नादिना धनेन वा तत् सेवां च सततं कुर्वन्तु। नहि केचिद्विद्वत्सङ्गेन विना विद्यादिरत्नानि प्राप्तुं शक्नुवन्ति। न किल केचित् कपटादिदोषरहितानामाप्तानां विदुषां सङ्गाध्ययने अन्तरा सुशीलतां विद्यावृद्धिं च कर्त्तुं समर्थयन्ति ॥ २५ ॥अत्र राजप्रजाऽध्ययनाध्यापनादिकर्मवर्णनात् पूर्वसूक्तार्थेन सहैतत्सूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥इति प्रथमस्याष्टमे सप्तदशो वर्गः। सप्तदशोत्तरशततमं सूक्तं च समाप्तम् ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या लोकांनी उपकारक विद्या व धर्मोपदेशाचा प्रचार केलेला आहे. त्यांची प्रशंसा करून माणसांनी त्यांना अन्न किंवा धन इत्यादींनी सेवा करावी. कारण कोणीही विद्वानांच्या संगतीशिवाय विद्या इत्यादी उत्तम उत्तम रत्नांना प्राप्त करू शकत नाही. कपट इत्यादी दोषांनीरहित शास्त्र जाणणाऱ्या विद्वानांच्या संगतीशिवाय व विद्या शिकल्याशिवाय कुणी चांगले शील व विद्येची वृद्धी करण्यास समर्थ होऊ शकत नाहीत. ॥ २५ ॥